Wednesday, September 10, 2008

स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या से उपजे सवाल


स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है और अब यह भी सामने आ चुका है कि इस हत्याकांड की साजिश के पीछे ईसाई मिशनरियों का हाथ है। उनकी हत्या किए जाने की आशंका के बावजूद उन्हें बचाया नही जा सका, जोकि अत्यंत दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है।
अपने लेख में अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम के अध्यक्ष जगदेवराम उरांव ने स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या से उपजे दर्द को बयां करते हुए इस साजिश के लिए मिशनरी व नक्सलवाद के गठजोड़ को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने अपने लेख में कहा है कि छह माह पूर्व भी ईसाई मिशनरी द्वारा स्वामी लक्ष्मणानंद पर हमला किया गया था। उस हमले के बाद हुई हिंसा की जांच में भी यह बात सामने आई थी कि उस हिंसा में भी कहीं न कहीं नक्सलियों का हाथ था और ईसाई मिशनरियां और नक्सली एक-दूसरे को मदद पहुंचा रहे हैं। उन्होंने लेख में आरोप लगाया कि चर्च और नक्सलियों ने पूर्व नियोजित साजिश के तहत स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या की। उन्होंने कहा कि इस घटना की गंभीरता को समझते हुए इस पूरे प्रकरण पर गहन चिंतन-मनन होना चाहिए, ताकि भविष्य में इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो।
लेख में आगे कहा गया है कि हम वनवासी क्षेत्र में कार्य करने वाले कार्यकर्ता जानते हैं कि ईसाई मिशनरियां हमारे वनवासी बहन-भाइयों के स्वाभिमान, अस्मिता और राष्ट्रीयता को नष्ट करना चाहती है, उनकी मूल पहचान को बदलना चाहती हैं। कंधमाल की स्थितियां कुछ भिन्न है। वहां ये मिशनरियां वंचित वर्ग में कुछ अधिक प्रभावी है। इस मतांतरित वंचित वर्ग के माध्यम से दबाव डालकर वे वनवासी समाज का धर्मपरिवर्तन करना चाहती है। वहां मिशनरियों ने कुई भाषा कोआधार बनाकर वंचितों को भड़काया है। वहां कुई भाषा को जनजातीय भाषा की सूची में शामिल करने की मांग को लेकर आंदोलन शुरू किया गया, ताकि वंचितों को उनके वर्ग की सुविधा मिलने के साथ-साथ जनजातीय वर्ग की सुविधा भी मिल सके। यह असंवैधानिक है, क्योंकि संविधान के अनुसार किसी भी वर्ग को उसकी जाति के आधार आरक्षण आदि की सुविधाएं दी जाती है, भाषा के आधार पर नहीं।
इस षडयंत्र को समझने के कारण जनजातीय समाज ने कुई भाषा को अपने वर्ग की भाषा में शामिल करने का विरोध किया। इस कारण पिछले काफी समय से धर्मातरित वंचित समाज और जनजातीय समाज के बीच संघर्ष चल रहा था।
लेख में आगे कहा गया है, इसी की प्रतिक्रिया में दिसंबर, 2007 में स्वामी लक्ष्मणानंद पर जानलेवा हमला किया गया। जिसमें वे बुरी तरह से घायल हो गए, लेकिन उस घटना के बाद भी प्रशासन ने गंभीरता से स्थिति का विचार नहीं किया, असमाजिक तत्वों पर कठोर कार्रवाई नहीं की, इस कारण स्वामी लक्ष्मणानंद की जघन्य हत्या करने का मिशनरियों में साहस पैदा हुआ। देशभर के पिछड़े क्षेत्रों में मिशनरियां सेवा के नाम पर भोले-भाले, अशिक्षित, गरीब तथा वंचित वर्ग के धर्मातरण में लगी हुई हैं। उड़ीसा में स्वामी लक्ष्मणानंद उनके उनके इस कार्य का कड़ा विरोध करते थे। जिसे स्वामी लक्ष्मणानंद मिशनरियों के आंखों में खटकने लगे, जिसके चलते उनको अपनी राह से हटाने के लिए मिशनरियों ने नक्सलियों व माओवादियों से हाथ मिलाया।
लेख में आगे कहा गया है कि देशभर में जहां-जहां वनवासी आश्रम के कार्यकर्ता अथवा हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों के लोग समाजसेवा में जुटे हुए है, वहां नक्सली व माओवादी उन्हें समाजसेवा बंद करने की धमकी देते है और ऐसा नहीं करने पर कार्यकर्ताओं पर हमले किए जाते हैं। इन हमलों में हमारे कई कार्यकर्ता मारे जा चुके हैं।
लेख में आगे कहा गया है, हिंदू संगठन जनजातीय समाज के बीच जो स्वाभिमान, अस्मिता, पहचान और राष्ट्रीयता का भाव जगाते हैं वह मिशनरियों को रास नहीं आता, क्योंकि इस चेतना की जागृति होने से उनके धर्मातरण के कार्य में बाधा पहुंचती है। यही पीड़ा नक्सलियों, माओवादियों व कम्युनिस्टों की भी है, क्योंकि राष्ट्रभाव जगने के बाद अलगाववाद के लिए स्थान ही नहीं बचता। इसलिए जसपुर [छत्तीसगढ़] से लेकर मणिपुर [पूर्वोत्तर] तक राष्ट्रवादी हिंदुओं पर हमले करना, और उनके नेताओं को बदनाम करने का षडयंत्र चल रहा है। जब हिंदू नेता किसी षडयंत्र के कारण बदनाम होता है तो उससे हिंदू समाज कमजोर होता है, इस स्थिति का लाभ मिशनरियां और माओवादी दोनों ही उठाते है। देशवासियों को समझना होगा कि मिशनरियों का एक चेहरा है ईसा मसीह के प्रेम संदेश प्रचारित-प्रसारित करना और दूसरा चेहरा है किसी भी प्रकार सभी को ईसाई बनाना, भले ही इसके लिए हिंसक मार्ग अपनाना पड़े। भय पैदा करने या हिंसा के लिए वे स्वयं सामने नहीं आते हैं, बल्कि किसी न किसी व्यक्ति या संगठन को माध्यम बनाते हैं। धर्मातरित हिंदू समाज ही अपने पूर्वज हिंदू समाज कि प्रति इसलिए हिंसक हो जाता है, क्योंकि मिशनरियां उनकी मानसिकता बदल देती हैं। धर्मातरित समाज को लगता है कि हम जो पहले थे वह खराब था, अब सही है। जबकि धर्मतांतरित न होने वाला समाज भगवान राम, कृष्ण, शिव, हनुमान वाली संस्कृति से ही जुड़ा रहना चाहता है, अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाए रखना चाहता है। इस कारण यह संघर्ष चलता रहेगा। यह संघर्ष न हो, समाज में शांति स्थापित हो इसके लिए जरूरी है धर्मातरण को रोकने के लिए कठोर कानून बनाया जाए। यह कार्य शासन का है। हमारा कार्य समाज में जागृति लाने का है। हम उसी कार्य में लगे हैं।
लेख में आगे कहा गया है कि स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या से हमारा कार्य रुकने वाला नहीं है, लेकिन हमारा एक नेतृत्व तो हमसे बिछुड़ ही गया। नेतृत्व और भी खड़े होंगे, लेकिन 40-50 वर्ष से उस क्षेत्र में उन्होंने जो प्रयत्‍‌न किए, पदयात्राएं की, समाज में अपने प्रति श्रद्धा जगाकर जो नेतृत्व दिया, उस नेतृत्व का इस प्रकार हमारे बीच से चला जाना हृदय को पीड़ा से भर देता है। इस नेतृत्व को समाज के बीच से हटाने के लिए मिशनरियों ने जो षडयंत्र रचा, वह अत्यंत निंदनीय है। सरकार को इस पर गंभीरता से सोचना चाहिए अन्यथा देशभर में इसकी प्रतिक्रिया होगी।
प्रेम, सौहार्द और सर्वधर्म समभाव की भावना से काम कर रहे लोगों को इस प्रकार हिंसक तरीके अपना कर रोकने से एक बार के लिए तो समाज में निराशा की भावना आती है। यह निराशा का भाव भी राष्ट्र के लिए अच्छा नहीं होता है, क्योंकि निराशा से उपजी प्रतिक्रिया बहुत व्यापक होती है।
कंधमाल और उसके आसपास के जिलों में जो प्रतिक्रिया हो रही है वह इस कारण भी है कि शासन ने 'जले पर नमक छिड़कना' जैसा कृत्य किया है। स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या के कुछ ही देर बाद पुलिस द्वारा इसे नक्सली घटना कहना, राष्ट्रीय नेताओं द्वारा तुरंत संवेदना न प्रकट करना, हिंदू समाज के लोगों को ही बदनाम करना- इस सबने वहां के स्थानीय लोगों को उत्तेजित किया।
लेख में आगे कहा गया है कि उड़ीसा में ही मिशनरी कार्यकर्ता ग्राहम स्टेस की हत्या हुई तो सरकार वहां भागी गई, विश्व भर का दबाव पड़ा, मीडिया ने हिंदू संगठनों को बदनाम किया। हमने [आश्रम व हिंदू समाज] तब भी उस घटना की निंदा की थी और इसे कायरतापूर्ण कृत्य कहा था। पर अब उसी प्रदेश में एक संन्यासी की निर्मम हत्या पर संवदेना व्यक्त करने में सरकार का संकोच और मीडिया द्वारा उपेक्षा भ‌र्त्सना योग्य है। इन सबको समझना होगा कि हिंदू समाज अपने संतो-आस्था केंद्रों पर हमले सहने के लिए तैयार नहीं है।
[पांचजन्य से साभार]

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