Thursday, September 18, 2008

गुजरात दंगों की रिपोर्ट पेश

अहमदाबाद, 18 सितंबर। फरवरी 2002 के गोधरा कांड और उसके बाद राज्य में फैले सांप्रदायिक दंगों की जांच करने वाले दो सदस्यीय नानावटी-मेहता आयोग ने अपनी रिपोर्ट का पहला हिस्सा बृहस्पतिवार को गुजरात सरकार को सौंपा।

गुजरात सरकार ने पहले एक सदस्यीय आयोग का गठन 6 मार्च 2002 को किया था और गुजरात उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश के जी शाह को आयोग का अध्यक्ष बनाया गया था। आयोग को 27 फरवरी 2002 को गोधरा रेलवे स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस के एस 6 और एस 7 डिब्बे को अराजक तत्वों द्वारा आग लगाने की घटना की जांच करना था। इस कांड में 59 रामसेवक मारे गए थे। बाद में सरकार ने उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जी टी नानावटी को भी आयोग में शामिल कर लिया और आयोग के जांच के दायरे में गोधरा कांड के बाद हुए दंगों को भी लाया गया जिनमें करीब 2,000 लोग मारे गए थे।

न्यायाधीश शाह का इस दौरान निधन हो गया और इसी वर्ष अप्रैल में गुजरात सरकार ने गुजरात उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश अक्षय कुमार मेहता को आयोग में नियुक्त किया। आयोग ने छह वर्ष की अवधि में हजार से ज्यादा गवाहों के बयान लिए और 40 हजार आवेदनों की जांच की।

मुख्यमंत्री कार्यालय के सूत्रों के अनुसार रिपोर्ट मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को उनके कार्यालय में सौंपी गई। उस समय गृहमंत्री अमित शाह भी वहीं मौजूद थे। सूत्रों ने बताया कि आयोग अंतिम रिपोर्ट नियत समय में पेश करेगा। फिलहाल आज पेश की गई रिपोर्ट के अंशों के बारे में अभी कुछ पता नहीं चल सका है।

मोदी के अपमान का दोषी कौन?

भारत को यह दुनिया एक हिंदू देश मानती है। किंतु दुर्भाग्य से भारत के ही अधिकांश प्रबुद्ध इस संज्ञा से शून्य हैं। वे अपने-आपको 'सेक्यूलर', 'प्रगतिशील', 'समाजवादी', 'विकासशील' आदि पता नहीं, क्या-क्या कहते रहते हैं, लेकिन 'हिंदू' कहने से बचते हैं। हमारे बौद्धिक जीवन में यह आत्मप्रवंचना, हिंदू शब्द को हीनता का प्रतीक मानना हमारी अनेक आंतरिक और वैदेशिक समस्याओं के समाधान में एक बड़ी बाधा है। नरेंद्र मोदी को फिर एक बार अमेरिका द्वारा वीजा न देने की घोषणा से वही सच्चाई सामने आई है। गौरतलब है कि दूसरे की धार्मिक स्वतंत्रता अथवा मानवाधिकार हनन के आरोपी किसी विदेशी को वीजा न देने का अमेरिकी कानून आज तक किसी ईसाई या मुसलिम विदेशी शासकों पर लागू नहीं हुआ। इसके लिए एक हिंदू को चुना गया है। नरेंद्र मोदी ने किसी की धार्मिक स्वतंत्रता का कैसे हनन किया या गुजरात में कौन-सा मानवाधिकार बाधित है, इसका अमेरिकियों के पास कोई उत्तर नहीं है। सऊदी अरब में कोई हिंदू अपने देवी-देवता की मूर्ति तक नहीं ले जा सकता। वह अपने त्योहार तक सार्वजनिक नहीं मना सकता। कई इसलामी देशों में विदेशी गैर-मुसलिम महिलाओं पर इसलामी कानून जबरन लागू किए जाते हैं। यह सब दूसरों की धार्मिक स्वतंत्रता का खुलेआम हनन होते हुए भी अमेरिका अरब शासकों को अपमानित नहीं करता। पर नरेंद्र मोदी पर यही आरोप लगाकर उन्हें अपमानित किया गया। क्यों? इसका ईमानदारी से सामना करना जरूरी
है।अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलीजा राइस ने स्पष्ट कहा है कि कुख्यात आतंकी गिरोह हिजबुल्ला को लेबनान में सरकारी भागीदारी दी जा सकती है। कुछ ही पहले उग्रवादी आयरिश संगठन सीन फेन के नेता गैरी एडम्स का अमेरिका में स्वागत हुआ। चीन में निहत्थे छात्रों पर टैंक चढ़ा देने वाले तथा तिब्बत में असंख्य बौद्ध मठों का विनाश करने वाले कम्युनिस्ट तानाशाह वाशिंगटन में परम सम्मानित अतिथि होते हैं। कश्मीर में हिंदुओं को निशाना बनाने वाले कई आतंकी-अलगाववादी मुसलिम नेता बार-बार अमेरिका जाते हैं। दो दशक तक अरब और यूरोप में आतंकी कार्रवाइयों के सरगना यासिर अराफात को सादर अमेरिका बुलाकर अनेक वार्ताएं की गई।हमारे साथ समस्या यह है कि भारतीय हिंदू दुनिया को बताने में विफल रहते हैं कि कंधमाल या गोधरा में कभी-कभार हिंदू समुदाय हिंसा पर उतारू होता है, तो वह लंबे समय तक हिंसा झेलने के बाद भड़कने वाली आकस्मिक प्रतिक्रिया होती है। इसी तरह वे ईसाई मिशनरियों द्वारा धर्मातरण में लिप्त होने की सच्चाई भी दुनिया को नहीं बताते। स्थिति इस प्रकार है, दुनिया में ईसाई सभ्यता है, उसके साम्राज्यवादी अधिकार हैं। छल-प्रपंच और हिंसा समेत हर तरह से गैर-ईसाइयों का धर्मातरण करवाने वाले संगठनों को अमेरिका और यूरोप की असंख्य सरकारों का संरक्षण हासिल है। इसी तरह इसलामी सभ्यता है, उसके और भी विशिष्ट अधिकार हैं। बात-बात में उसकी भावना आहत हो जाती है। किंतु मान लिया गया है कि हिंदू सभ्यता के न कोई अधिकार हैं, न भावना। नरेंद्र मोदी को मौके-बेमौके अपमानित करना यही चेतावनी देने का प्रयास है कि हिंदू भावनाओं की अभिव्यक्ति हर हाल में मना है। अन्यथा जो अमेरिका व‌र्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमले के बाद सजा देने के लिए पूरे अफगानिस्तान पर आक्रमण अपना सहज अधिकार समझता है, वही अमेरिका मुंबई, गोधरा या कंधमाल में आतंकी कांड के बाद हिंदू प्रतिक्रिया को उसी दृष्टि से देखने से इनकार क्यों करता है? भारतीय हिंदुओं ने यह हीन स्थिति स्वीकार कर ली है? यह हीन-भावना हिंदू नेताओं, बुद्धिजीवियों में इतनी गहरी बैठी है कि हरेक संकट में वे इसलामी, ईसाई या मा‌र्क्सवादी 'सहमतों' के विरुद्ध एकजुट होने के बदले अपने ही हिंदू बंधु से खफा हो जाते हैं, जिसने कुछ सच बोल दिया हो। यह संयोग था कि गोधरा के बाद नरेंद्र मोदी ने ऐसा रुख अपनाया, जो मूक हिंदुओं की पीड़ा और आक्रोश को व्यक्त करता था। मोदी की मुद्रा से हिंदू-विरोधी शक्तियों को भय हुआ कि यदि और भी हिंदू वैसा ही निर्भीक सत्य कहने लगें, तो क्या होगा? इसी चिंता से मोदी के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय मोरचे बंदी कसी गई। हमें अमेरिका से नाराज होने की आवश्यकता नहीं। वह अपने कथित राष्ट्रीय हित में जो ठीक समझता है, करता है। मोदी को अपमानित करने के पीछे दुनिया के जेहादियों को अमेरिका के प्रति नरम बनाने की कूटनीति हो सकती है। किंतु वास्तविक दोषी स्वयं हिंदू समाज है, जो यह भूल गया है कि जो समाज अपनी रक्षा करने में समर्थ नहीं, उसके सद्भाव, मैत्री या नाराजगी का विशेष मूल्य नहीं होता। कुछ भाजपाइयों को भ्रम है कि मोदी के कारण देश की छवि बिगड़ी। वे भूलते हैं कि गोधरा से पहले भी दुनिया भर के वैचारिक आक्रमणकारियों ने भाजपा की यही छवि बना रखी थी। यदि हम हिंदू होकर भी दुनिया के सामने खुलकर हिंदुओं की चिंता रखने से बचते हैं, तो हमारी भीरुता स्पष्ट है। अमेरिका अरब तानाशाहों, ईरान या चीन को नहीं धकिया सकता। पर सबसे बड़े लोकतंत्र को अपमानित करने में उसे दो बार भी नहीं सोचना पड़ता। हिंदुओं की यही कमजोरी है कि उनकी कोई आवाज नहीं। नरेंद्र मोदी ने जैसे-तैसे यह आवाज उठाई। उन्हें इसी की सजा दी जा रही है।
शंकर शरण [लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]
[साभार उमर उजाला]

Thursday, September 11, 2008

बांझ दंपतियों के लिए आशा की किरण: गर्भधारण की सस्ती विधि

मुंबई। मुंबई के एक चिकित्सक दंपति ने गर्भधारण की एक ऐसी आसान एवं सस्ती विधि ढूंढने का दावा किया है, जो कि बांझ युगलों के जीवन में बहुत ही कम खर्च में बहार ला सकती है।मुंबई के चिकित्सक दंपति अंजली एवं अनिरुद्ध मालपानी ने एक इंट्रा वेजिनल कल्चर विधि - हॉट ब्लॉक का विकास एवं डिजाइन तैयार की है, जिससे कृत्रिम गर्भधारण के क्षेत्र में होने वाला खर्च अत्यंत कम हो जाएगा।

इस नई विधि के तहत पुरुष के वीर्य एवं महिला के अंडाणु को एक बोतल में फर्टिलाइज किया जाता है, जिसमें महज 3 रुपये का खर्च आता है, जबकि यही कार्य सोफिस्टिकेटेड इनक्यूबेटर में करने पर पांच से सात लाख का खर्च आता है, साथ ही इसके मेन्टेनेन्स में भी भारी खर्च होता है। चिकित्सक अंजली के अनुसार इस नई विधि का प्रयोग पांच जोड़ों पर किया गया, जिनमें से दो सफलतापूर्वक गर्भधारण कर चुके हैं। अंजली का कहना है कि हमारा उद्देश्य शहरों एवं छोटे नगरों के सरकारी अस्पतालों में इस नई विधि के ज्ञान का प्रसार करना है, ताकि ऐसे लोग जो इन-विट्रो फर्टिलाइजेशन या टेस्ट ट्यूब बेबी का खर्च वहन नहीं कर पाते, वे इस नई विधि से कम खर्च में अपनी गोद भर सकें। उन्होंने बताया कि नई विधि में प्रयुक्त किए जाने वाले हॉट ब्लॉक की लागत मात्र 15 हजार रुपये है और फर्टिलाइजेशन के लिए सिर्फ 3 रुपये की एक शीशी की जरूरत होती है तथा इसमें मेन्टेनेन्स का खर्च भी शून्य होता है। वर्तमान समय में इस हेतु उपयोग किए जाने वाले इनक्यूबेटर में मेन्टेनेन्स की लागत बहुत ज्यादा होती है, क्योंकि इसमें कार्बनडाइआक्साइड का स्तर, तापमान 37 डिग्री रखने तथा अम्ल आधार का संतुलन कायम रखने जैसी जटिल क्रियाएं करनी होती हैं।

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Wednesday, September 10, 2008

स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या से उपजे सवाल


स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है और अब यह भी सामने आ चुका है कि इस हत्याकांड की साजिश के पीछे ईसाई मिशनरियों का हाथ है। उनकी हत्या किए जाने की आशंका के बावजूद उन्हें बचाया नही जा सका, जोकि अत्यंत दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है।
अपने लेख में अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम के अध्यक्ष जगदेवराम उरांव ने स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या से उपजे दर्द को बयां करते हुए इस साजिश के लिए मिशनरी व नक्सलवाद के गठजोड़ को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने अपने लेख में कहा है कि छह माह पूर्व भी ईसाई मिशनरी द्वारा स्वामी लक्ष्मणानंद पर हमला किया गया था। उस हमले के बाद हुई हिंसा की जांच में भी यह बात सामने आई थी कि उस हिंसा में भी कहीं न कहीं नक्सलियों का हाथ था और ईसाई मिशनरियां और नक्सली एक-दूसरे को मदद पहुंचा रहे हैं। उन्होंने लेख में आरोप लगाया कि चर्च और नक्सलियों ने पूर्व नियोजित साजिश के तहत स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या की। उन्होंने कहा कि इस घटना की गंभीरता को समझते हुए इस पूरे प्रकरण पर गहन चिंतन-मनन होना चाहिए, ताकि भविष्य में इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो।
लेख में आगे कहा गया है कि हम वनवासी क्षेत्र में कार्य करने वाले कार्यकर्ता जानते हैं कि ईसाई मिशनरियां हमारे वनवासी बहन-भाइयों के स्वाभिमान, अस्मिता और राष्ट्रीयता को नष्ट करना चाहती है, उनकी मूल पहचान को बदलना चाहती हैं। कंधमाल की स्थितियां कुछ भिन्न है। वहां ये मिशनरियां वंचित वर्ग में कुछ अधिक प्रभावी है। इस मतांतरित वंचित वर्ग के माध्यम से दबाव डालकर वे वनवासी समाज का धर्मपरिवर्तन करना चाहती है। वहां मिशनरियों ने कुई भाषा कोआधार बनाकर वंचितों को भड़काया है। वहां कुई भाषा को जनजातीय भाषा की सूची में शामिल करने की मांग को लेकर आंदोलन शुरू किया गया, ताकि वंचितों को उनके वर्ग की सुविधा मिलने के साथ-साथ जनजातीय वर्ग की सुविधा भी मिल सके। यह असंवैधानिक है, क्योंकि संविधान के अनुसार किसी भी वर्ग को उसकी जाति के आधार आरक्षण आदि की सुविधाएं दी जाती है, भाषा के आधार पर नहीं।
इस षडयंत्र को समझने के कारण जनजातीय समाज ने कुई भाषा को अपने वर्ग की भाषा में शामिल करने का विरोध किया। इस कारण पिछले काफी समय से धर्मातरित वंचित समाज और जनजातीय समाज के बीच संघर्ष चल रहा था।
लेख में आगे कहा गया है, इसी की प्रतिक्रिया में दिसंबर, 2007 में स्वामी लक्ष्मणानंद पर जानलेवा हमला किया गया। जिसमें वे बुरी तरह से घायल हो गए, लेकिन उस घटना के बाद भी प्रशासन ने गंभीरता से स्थिति का विचार नहीं किया, असमाजिक तत्वों पर कठोर कार्रवाई नहीं की, इस कारण स्वामी लक्ष्मणानंद की जघन्य हत्या करने का मिशनरियों में साहस पैदा हुआ। देशभर के पिछड़े क्षेत्रों में मिशनरियां सेवा के नाम पर भोले-भाले, अशिक्षित, गरीब तथा वंचित वर्ग के धर्मातरण में लगी हुई हैं। उड़ीसा में स्वामी लक्ष्मणानंद उनके उनके इस कार्य का कड़ा विरोध करते थे। जिसे स्वामी लक्ष्मणानंद मिशनरियों के आंखों में खटकने लगे, जिसके चलते उनको अपनी राह से हटाने के लिए मिशनरियों ने नक्सलियों व माओवादियों से हाथ मिलाया।
लेख में आगे कहा गया है कि देशभर में जहां-जहां वनवासी आश्रम के कार्यकर्ता अथवा हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों के लोग समाजसेवा में जुटे हुए है, वहां नक्सली व माओवादी उन्हें समाजसेवा बंद करने की धमकी देते है और ऐसा नहीं करने पर कार्यकर्ताओं पर हमले किए जाते हैं। इन हमलों में हमारे कई कार्यकर्ता मारे जा चुके हैं।
लेख में आगे कहा गया है, हिंदू संगठन जनजातीय समाज के बीच जो स्वाभिमान, अस्मिता, पहचान और राष्ट्रीयता का भाव जगाते हैं वह मिशनरियों को रास नहीं आता, क्योंकि इस चेतना की जागृति होने से उनके धर्मातरण के कार्य में बाधा पहुंचती है। यही पीड़ा नक्सलियों, माओवादियों व कम्युनिस्टों की भी है, क्योंकि राष्ट्रभाव जगने के बाद अलगाववाद के लिए स्थान ही नहीं बचता। इसलिए जसपुर [छत्तीसगढ़] से लेकर मणिपुर [पूर्वोत्तर] तक राष्ट्रवादी हिंदुओं पर हमले करना, और उनके नेताओं को बदनाम करने का षडयंत्र चल रहा है। जब हिंदू नेता किसी षडयंत्र के कारण बदनाम होता है तो उससे हिंदू समाज कमजोर होता है, इस स्थिति का लाभ मिशनरियां और माओवादी दोनों ही उठाते है। देशवासियों को समझना होगा कि मिशनरियों का एक चेहरा है ईसा मसीह के प्रेम संदेश प्रचारित-प्रसारित करना और दूसरा चेहरा है किसी भी प्रकार सभी को ईसाई बनाना, भले ही इसके लिए हिंसक मार्ग अपनाना पड़े। भय पैदा करने या हिंसा के लिए वे स्वयं सामने नहीं आते हैं, बल्कि किसी न किसी व्यक्ति या संगठन को माध्यम बनाते हैं। धर्मातरित हिंदू समाज ही अपने पूर्वज हिंदू समाज कि प्रति इसलिए हिंसक हो जाता है, क्योंकि मिशनरियां उनकी मानसिकता बदल देती हैं। धर्मातरित समाज को लगता है कि हम जो पहले थे वह खराब था, अब सही है। जबकि धर्मतांतरित न होने वाला समाज भगवान राम, कृष्ण, शिव, हनुमान वाली संस्कृति से ही जुड़ा रहना चाहता है, अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाए रखना चाहता है। इस कारण यह संघर्ष चलता रहेगा। यह संघर्ष न हो, समाज में शांति स्थापित हो इसके लिए जरूरी है धर्मातरण को रोकने के लिए कठोर कानून बनाया जाए। यह कार्य शासन का है। हमारा कार्य समाज में जागृति लाने का है। हम उसी कार्य में लगे हैं।
लेख में आगे कहा गया है कि स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या से हमारा कार्य रुकने वाला नहीं है, लेकिन हमारा एक नेतृत्व तो हमसे बिछुड़ ही गया। नेतृत्व और भी खड़े होंगे, लेकिन 40-50 वर्ष से उस क्षेत्र में उन्होंने जो प्रयत्‍‌न किए, पदयात्राएं की, समाज में अपने प्रति श्रद्धा जगाकर जो नेतृत्व दिया, उस नेतृत्व का इस प्रकार हमारे बीच से चला जाना हृदय को पीड़ा से भर देता है। इस नेतृत्व को समाज के बीच से हटाने के लिए मिशनरियों ने जो षडयंत्र रचा, वह अत्यंत निंदनीय है। सरकार को इस पर गंभीरता से सोचना चाहिए अन्यथा देशभर में इसकी प्रतिक्रिया होगी।
प्रेम, सौहार्द और सर्वधर्म समभाव की भावना से काम कर रहे लोगों को इस प्रकार हिंसक तरीके अपना कर रोकने से एक बार के लिए तो समाज में निराशा की भावना आती है। यह निराशा का भाव भी राष्ट्र के लिए अच्छा नहीं होता है, क्योंकि निराशा से उपजी प्रतिक्रिया बहुत व्यापक होती है।
कंधमाल और उसके आसपास के जिलों में जो प्रतिक्रिया हो रही है वह इस कारण भी है कि शासन ने 'जले पर नमक छिड़कना' जैसा कृत्य किया है। स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या के कुछ ही देर बाद पुलिस द्वारा इसे नक्सली घटना कहना, राष्ट्रीय नेताओं द्वारा तुरंत संवेदना न प्रकट करना, हिंदू समाज के लोगों को ही बदनाम करना- इस सबने वहां के स्थानीय लोगों को उत्तेजित किया।
लेख में आगे कहा गया है कि उड़ीसा में ही मिशनरी कार्यकर्ता ग्राहम स्टेस की हत्या हुई तो सरकार वहां भागी गई, विश्व भर का दबाव पड़ा, मीडिया ने हिंदू संगठनों को बदनाम किया। हमने [आश्रम व हिंदू समाज] तब भी उस घटना की निंदा की थी और इसे कायरतापूर्ण कृत्य कहा था। पर अब उसी प्रदेश में एक संन्यासी की निर्मम हत्या पर संवदेना व्यक्त करने में सरकार का संकोच और मीडिया द्वारा उपेक्षा भ‌र्त्सना योग्य है। इन सबको समझना होगा कि हिंदू समाज अपने संतो-आस्था केंद्रों पर हमले सहने के लिए तैयार नहीं है।
[पांचजन्य से साभार]

अयोग्य छात्र हो सकते हैं परीक्षा से वंचित



नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने यह व्यवस्था दी है कि जो छात्र शैक्षणिक संस्थानों में जरूरी योग्यता के बगैर प्रवेश पा लेते हैं उनके प्रति अनावश्यक सहिष्णुता दिखाने की जरूरत नहीं है। उन्हें परीक्षाओं में शामिल होने की अनुमति नहीं दी जा सकती। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनावश्यक सहिष्णुता दिखाते हुए एक विशेष पाठ्यक्रम के लिए प्रवेश के मामले मे शैक्षणिक मानदंडों से समझौता किया गया है। एक बार फिर इस मामले में उच्च न्यायालय के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों की अवहेलना हुई है।


न्यायाधीश अशोक भान और वीएस सिरपुरकर की पीठ ने यह निर्णय केरल उच्च न्यायालय के फैसले को नामंजूर करते हुए सुनाया। केरल उच्च न्यायालय ने महात्मा गांधी विश्वविद्यालय को एक छात्रा गिस जोंस के परिणाम घोषित करने का निर्देश दिया था हालांकि वह प्रवेश के लिए योग्यता के मानदंडों को पूरा नहीं करती थी। अकादमिक परिषद की अनुशंसा के आधार पर विश्वविद्यालय ने बीपीसी कालेज पीरावोम से कंप्यूटर में एमएससी कर रही छात्रा जोंस के परिणामो पर रोक लगा दी थी। परिणाम इस आधार पर रोके गए थे कि छात्रा ने क्वालीफाइंग परीक्षा में सिर्फ 53.3 फीसदी अंक पाए थे, जबकि विश्वविद्यालय ने न्यूनतम कट आफ अंक 55 फीसदी तय किया था।
[मंगलवार 9 सितंबर, 2008 का फैसला]

Tuesday, September 9, 2008

रामलीला में अश्लील नाच-गानों पर हो सकती है कार्रवाई


इस महीने के अंत में रामलीलाओं का मंचन शुरू होने वाला है। कुछ जगहों पर मंच पर अचानक अश्लील गानों व नृत्यों का मंचन देख श्रीराम भक्तों की श्रद्धा को गहरा आघात लगता है और वे अपने -आप को असहज महसूस करने लगते हैं। वे समझ नहीं पाते क्या करें, ऐसे में दिल्ली उच्च न्यायालय का एक आदेश उनकी मदद कर सकता है और वे ऐसे मंचन के आयोजकों के खिलाफ अपनी शिकायत दर्ज करा सकते हैं और पुलिस को उस पर कार्रवाई करनी ही होगी। इस मामले में सोमवार, 18 सितंबर 2006 को दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया एक फैसला आपकी मदद कर सकता है। फैसला इस प्रकार है...

नई दिल्ली। दिल्ली उच्च न्यायालय ने रामलीलाओं में किन्नरों और युवतियों द्वारा किए जाने वाले अश्लील नृत्य पर रोक लगाते हुए पुलिस को ऐसा करने वालों के खिलाफ कार्रवाई का निर्देश दिया। इसके साथ ही न्यायालय ने राजधानी में सभी रामलीला कमेटियों को रात्रि 11 बजे तक ही रामलीला का मंचन करने का निर्देश दिया। अदालत ने स्पष्ट किया कि रात्रि 11 बजे के बाद किसी भी हालत में मंचन की इजाजत नहीं होगी।
कार्यवाहक न्यायाधीश विजेंद्र जैन व न्यायमूर्ति कैलाश गंभीर की खंडपीठ ने यह निर्देश इंद्रपुरी निवासी सुभाष नागर द्वारा दायर जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए जारी किया। याचिकाकर्ता ने अदालत को बताया कि इंद्रपुरी में संत कबीर पार्क में दसघरा रामलीला कमेटी प्रतिवर्ष रामलीला का मंचन करती है। उन्होंने कहा कि रामलीला के दौरान कमेटी किन्नरों व युवतियों से नृत्य करवाती हैं जो काफी अश्लील होते हैं। याचिकाकर्ता ने कहा कि रामलीला का उद्देश्य लोगों को भगवान श्रीराम के जीवन के प्रति जानकारी देना व उनके आदर्शो पर चलने का संदेश देना है। उन्होंने अदालत से रामलीला के मंचन में इस प्रकार के नृत्य पर रोक लगाने का आग्रह किया।
खंडपीठ ने तथ्य देखने के बाद इंद्रपुरी थानाध्यक्ष को यह सुनिश्चित करने का निर्देश कि रामलीला में किसी भी प्रकार से अश्लील नाच-गाना न हो। साथ ही अदालत ने राजधानी में आयोजित होने वाली सभी रामलीलाओं को रात्रि 11 बजे तक ही मंचन करने का निर्देश दिया है। अदालत हर वर्ष रामलीलाओं को रात्रि 11 बजे तक मंचन की इजाजत देती है। कुछ वर्ष पूर्व राजधानी में कानून व्यवस्था, देर रात्रि तक चलने वाले माइक से होने वाली परेशानियों के संबंध में याचिका दायर की गई थी और अदालत ने इसी याचिका के आधार पर यह आदेश दिया था।

Saturday, September 6, 2008

क्यों जरूरी है भूमि


बाबा बर्फानी के श्रद्धालुओं को सुविधाएं प्रदान करने के लिए 80 एकड़ भूमि का टुकड़ा श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को क्या दिया गया, पूरी घाटी ही अलगाववादी व पीपीडी की लगाई आग में झुलस उठी। उसके बाद आनन-फानन में तत्कालीन राज्यपाल का इस्तीफा और उनके बाद बने नए राज्यपाल द्वारा भूमि सरकार को वापस लौटा देने से जम्मू भी सुलग उठा। दो महीने तक जम्मू व कश्मीर सुलगता रहा, जो जम्मू-कश्मीर सरकार व श्री अमरनाथ संघर्ष समिति के समझौते के बाद शांत हो गया। जम्मू-कश्मीर में अब भले ही शांति हो गई है, परंतु अभी भी कुछ सवाल हवा में तैर हैं, जिनमें से एक सवाल यह है कि आखिर श्रद्धालुओं की सुविधाओं के लिए भूमि के दिए जाने का क्या औचित्य है।
यदि आपने कभी अमरनाथ की यात्रा की होगी तो आपको इस भूमि की जरूरत की महत्ता जरूर समझ आ जाएगी। दो महीने तक चलने वाली इस यात्रा के दौरान श्रद्धालुओं को कितनी समस्याओं का सामना करना पड़ता है इसका अंदाजा उनको नहीं हो सकता जो इस यात्रा पर कभी गए ही नहीं है और न ही जिंदगी में कभी जाएंगे। मुझे याद है आज से करीब दस साल पहले जब मैं बाबा बर्फानी के दर्शनों के लिए गया था। हम दोस्तों ने बालटाल के रास्ते को चुना और रात वहीं बिताई। अल सुबह उठे तो हमें जंगल-पानी जाने में काफी परेशानी का सामना करना पड़ा, क्योंकि वहां शौचालय की सुविधा नाममात्र की थी। जैसे-तैसे झाडि़यों के पीछे सुबह की नियत क्रियाओं से फारिग होकर स्नान ध्यान कर पवित्र यात्रा शुरू की। हम दोपहर के करीब पवित्र गुफा पहुंचे। वहां हमने स्नान कर कपड़े बदलने का निर्णय किया और नदी के तट पर पहुंचे जो गुफा से मात्र 50-60 मीटर की दूर पर थी। वहां पहुंचे तो मलमूत्र की गंदगी देख नहाने की इच्छा खत्म सी हो गई, हल्की-हल्की बूंदाबादी ने इस स्थिति को और वीभत्स बना दिया था, पास ही लंगर चल रहा था, मन पर काबू पा हमने नदी में स्नान किया और कपड़े बदल दर्शनों की वीआईपी लाइन में लग गए। दर्शन कर बाबा की पवित्र याद मन में ले हम वहां से तुरंत रवाना हो गए। हम सब तो यही सोच कर आए थे की गुफा के पास एक रात रुकेंगे, परंतु वहां फैली गंदगी ने हमें वहां से जाने पर मजबूर कर दिया।
अपनी पवित्र गुफा की यात्रा का वृतांत मैंने इसलिए किया है कि आज दस साल बाद भी शायद उन परिस्थितियों में कोई खास अंतर नहीं आया होगा। इसलिए भूमि मिलने से अब श्राइन बोर्ड को वहां श्रद्धालुओं को सुविधाएं प्रदान करना आसान हो जाएगा। रही बात पर्यारणविदें के विरोध की तो मैं इसे गैरवाजिब मानता हूं, क्योंकि सैकड़ों वर्ग किलोमीटर में फैला ये क्षेत्र छह महीने बर्फ से ढका रहता है। अमरनाथ यात्रा शुरू होने से कुछ दिन पहले ही कुछ किलोमीटर लंबे इस यात्रा मार्ग को तैयार किया जाता है। ऐसे में यदि श्रद्धालुओं की सुविधाओं के लिए कुछ अस्थाई निर्माण होता है तो उससे वहां फैलने वाली गंदगी को ही रोकने में मदद मिलेगी।
-एक पत्रकार की कलम से