Friday, October 10, 2008

मरता समाज

समय: दोपहर 12 बजे

दिन: शुक्रवार, 10 अक्‍टूबर, 2008

स्थान: लालबत्ती, समाचार अपार्टमेंट, मयूर विहार-फेस 1, दिल्ली

दृश्य: फुटपाथ पर खड़ी एक अर्धनग्न सांवली सलोनी युवती... कुर्ते से अपने तन को ढकने का प्रयास करती हुई। चेहरे पर बेबसी का आलम, पास से गुजरते वाहन और हल्की-फुल्की टिप्पणियां...

वह दृश्य देख में कुछ विचलित-सा हुआ। मन में एकबारगी सोचा क्यों न इसे एक सलवार लाकर दे दूं। फिर दूसरा विचार उठा... चलो छोड़ो आफिस को पहले ही लेट हो चुके हो और फिर सलवार खरीदने पर पैसे खर्च होंगे सो अलग... फिर मोटरसाइकिल को अंदर की ओर मोड़ दिया। परंतु नजरों के सामने बार-बार उसी युवती का दृश्य घूमने लगा। तभी मार्केट के सामने मोड़ पर मुझे कुछ बैनर गिरे हुए दिखे। मन में कुछ सोचा... कुछ ठिठका.. सोचा समाज क्या कहेगा, फिर मन की उलझन व शर्म को एकतरफ रख मोटरसाइकिल रोकी... मोटरसाइकिल से उतरा... इधर-उधर देखा फिर बैनर उठा चुपचाप मोटरसाइकिल उठाई और वापस नोएडा-अक्षरधाम रोड़ की तरफ मुड़ गया। उस युवती के पास पहुंचा तो देखा... वह फुटपाथ पर बैठकर कक्कड़-पत्थर उठाकर सड़क पर फेंक रही है... मैंने चुपचाप कपड़े के बैनर उस युवती के पास फेंके और वापस मोटरसाइकिल घूमाई... देखा युवती ने बैनर उठाकर अपने सिर के ऊपर चुन्नी की तरह रखा हुआ था और सड़क को छोड़ अपने ऊपर कक्कड़-पत्थर डाल रही थी। मन में उसकी स्थिति को लेकर एक टीस लिए मैं अपने आफिस की तरफ बढ़ गया... फिर भी मन था बार-बार उसकी दुर्दशा की तरफ जा रहा था.. मन में बार-बार ये विचार उठ रहे थे... क्या मैंने उसकी आधी-अधूरी मदद करके ठीक किया। ...आज तो वह जैसे-तैसे अपना तन ढक रही है... कल क्या होगा, जब ये कपड़े भी नहीं रहेंगे... क्या उस जैसे लोगों को कपड़े देने या साफ कहें तो कपड़े का बैनर पकड़ा देना समस्या का हल होगा... नहीं! क्या ऐसे लोगों के लिए स्थायी निवास, सुरक्षा व इलाज की जरूरत नहीं है... क्या आज हम लोग इतने स्वार्थी हो गए हैं कि ऐसे लोगों की मदद के लिए कुछ भी नहीं कर सकते... क्या आज मुझमें और एक जानवर में कोई अंतर नहीं रह गया, जो केवल अपने बारे में ही सोचता है... और ऐसे ढेर सारे प्रश्न लेकर मैं अपने आफिस पहुंच गया और थोड़ी देर में ही काम में इतना व्यस्त हो गया कि सबकुछ भूल बैठा.. आज खुद मैं और वह सब लोग मुझे संवदेनहीन नजर आए जो उस युवती की दुर्दशा देख उसे भगवान भरोसे छोड़ आगे बढ़ गए। क्या यही समाज रह गया है हमारा... मुझे कोफ्त हो रही है इस समाज पर अपने आप पर।

राजेश

3 comments:

प्रकाश गोविंद said...

सुंदर रचना है,
लेखन से आपके कोमल मन की अभिव्यक्ति सुनाई देती है !
आज लोग अन्दर से खोखले होते जा रहे हैं !
लोगों में संवेदनशीलता ख़तम होती जा रही है !
नए समाज की यह सबसे बड़ी समस्या है !
आपको हार्दिक शुभकामनाएं
टाइम मिले तो कभी मेरे ब्लॉग पर भी आईये !
- aajkiaawaaz.blogspot.com

प्रदीप मानोरिया said...

आपकी संवेदनशीलता को उजागर करता आपका आलेख आपके खूबसूरत ब्लॉग पर सैर कर आनंद हुआ आपका ब्लॉग जगत में स्वागत है निरंतरता बनाए रखे
मेरे ब्लॉग पर पधार कर व्यंग कविताओं का आनंद लें
मेरी नई रचना दिल की बीमारी पढने आप सादर आमंत्रित हैं

लोकेश Lokesh said...

यही समाज रह गया है हमारा...?

कभी हाँ, कभी ना