नई दिल्ली। राजधानी में हिंदूराव अस्पताल के बिस्तर पर पिछले दो माह से जिंदगी के लिए संघर्ष कर रहे 72 साल के इस इंसान ने अपना पूरा जीवन कुश्ती को समर्पित कर दिया और बीमारी में भी इसी खेल के बारे में सोचने वाले मास्टर चंदगीराम ने ओलंपिक में अधिक पदक जीतने का गुरूमंत्र खोज निकाला है।
जन्मदिन की बधाई के लिए संपर्क करने वालों से मास्टर जी ओलंपिक खेलों में अधिक पदक जीतने के बारे में बात करना शुरू कर देते हैं। उन्हें आज भी मीडिया से यह शिकायत है कि वह क्रिकेट के अलावा अन्य खेल खासकर कुश्ती पर तो ध्यान नहीं देता है।
शरीर के निचले हिस्से में खून नहीं जा पाने से दो माह से परेशान होने के बावजूद मास्टर चंदगीराम ने बताया कि अभी जरा तबीयत ठीक नहीं है, लेकिन मैने एक योजना तैयार की है जिससे हम ओलंपिक खेलों की कुश्ती प्रतियोगिता में और ज्यादा पदक जीत सकते। इस बारे में मैं अस्पताल से बाहर आने पर आपसे विस्तार से बात करूंगा।
टेलीविजन के एक मशहूर कार्यक्रम खतरों के खिलाड़ी से अपनी अलग पहचान बना चुकी मास्टर जी की बेटी सोनिका कालीरमण ने अपने पिता के बारे में बताया कि कुश्ती उनके खून में है उनमें एक अजीब तरह का दीवानापन है जो सनकीपन की हद तक है। राष्ट्रमंडल खेलों की कुश्ती प्रतियोगिता के लिए अपने को तैयार कर रही सोनिका ने बताया कि मास्टर जी शुरू में लड़कियों को पहलवान बनाने को बहुत अच्छा नहीं मानते थे, लेकिन एक बार स्कूल में लड़के से छेड़खानी के मामले से वे इतना नाराज हुए कि उन्होंने कहा कि लड़कियों को भी अपनी रक्षा के लिए ताकतवर होना चाहिए और उन्होंने हमें पहलवान बनने की इजाजत दी।
हरियाणा के जिला हिसार के सिसाई गांव में नौ नवंबर 1937 में जन्मे चंदगीराम शुरू में कुछ समय के लिए भारतीय सेना की जाट रेजीमेंट में सिपाही रहे और बाद में स्कूल टीचर होने के कारण उनको मास्टर चंदगीराम भी कहा जाने लगा था। सत्तर के दशक के सर्वश्रेष्ठ पहलवान मास्टर जी को 1969 में अर्जुन पुरस्कार और 1971 में पदमश्री अवार्ड से नवाजा गया।
बीस साल की उम्र के बाद कुश्ती में हाथ आजमाना शुरू करने वाले मास्टर जी ने 1961 में राष्ट्रीय चैम्पियन बनने के बाद से देश का ऐसा कोई कुश्ती का खिताब नहीं रहा जो नहीं जीता हो। इसमें राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के अलावा हिंद केसरी, भारत केसरी, भारत भीम और रूस्तम-ए-हिंद आदि के खिताब शामिल हैं।ईरान के विश्व चैम्पियन अबुफजी को हराकर बैंकाक एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतना उनका सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शन माना जाता है। उन्होंने 1972 म्युनिख ओलम्पिक में देश का नेतृत्व किया और दो फिल्मों 'वीर घटोत्कच' और 'टारजन' में काम किया और कुश्ती पर पुस्तकें भी लिखी।
[साभार: भाषा]
Sunday, November 8, 2009
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1 comment:
धन्यवाद उनकी सुध लेने के लिए और याद दिलाने के लिए। वे युग युग जिएँ, शीघ्र स्वस्थ हों और अपने सपने को हमारी आँखों के सामने उतारें - यही कामना है।
क्रिकेट के मामले में मैं घोर प्रतिक्रियावादी हूँ। जो इसकी बात करता है उससे विरक्ति सी होने लगती है। शायद चन्दगीराम जैसी शिकायत मेरे दिल में भी स्थायी खंरोच बना गई है।
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