Saturday, December 14, 2013

सत्ता संभालो वरना दिल्ली छोड़ो

नई दिल्ली। भारतीय लोकतंत्र में यह शायद पहला मौका होगा जब किसी राज्य में बहुमत के करीब खड़ी दो बड़ी पार्टियां सरकार बनाने से इन्कार कर रही हो और प्रदेश को दोबारा चुनाव के मुहाने पर ढकेल रही हो। सबसे बड़ी पार्टी होने और बहुमत से 4 सीट पीछे होने के बावजूद भाजपा जहां जोड़-तोड़ की राजनीति से परहेज करती हुई नजर आ रही है उसके पीछे कहीं न कहीं दिल्ली में 'आप' के उदय का प्रभाव भी माना जा सकता है। 'आप' के उद्भव के साथ ही देश की राजनीति में नए आयाम स्थापित होने की उम्मीद संजोई आम जनता पिछले कुछ दिनों से 'आप' को मैदान छोड़ते देखकर आश्चर्यचकित है।

'आप' का रवैया जनता के बीच में यह संदेश देता हुआ प्रतीत हो रहा है कि सत्ता के मुहाने पर पहुंचने के बाद भी सरकार न बनाकर वह इसकी जवाबदेही से सीधे-सीधे बचना चाहती है। पहले किसी भी पार्टी को न समर्थन देने और न लेने के बयान के बाद अब जब कांग्रेस व जदयू के एक विधायक ने 'आप' के समर्थन में वो भी 'बिना शर्त' का पत्र उप राज्यपाल महोदय को सौंप दिया है, तब अपने को चक्रव्यूह में फंसा पाकर शनिवार को अरविंद केजरीवाल द्वारा कांग्रेस और भाजपा के समक्ष सरकार बनाने से पहले 18 सूत्रीय मांग पत्र रखना राजनीति में उनकी अपरिक्वता को ही दर्शाता है।

लेकिन, आम जनता इतना तो जानती ही है कि इन 18 में से ज्यादातर मांगे जैसे बिजली के दामों में कमी करना, बिजली कंपनियों का ऑडिट करवाना, 700 लीटर पानी मुफ्त देना, प्रशासन को भ्रष्टाचार मुक्त बनाना आदि सत्तारूढ़ दल खुद ही पूरा कर सकता है, ऐसे में 'आप' को दूसरों के कंधों पर बंदूक रखकर चलाने की क्या जरूरत पड़ रही है।

सभी चाहते हैं 'आप' सत्ता में आएं और राजनीति में फैली गंदगी को झाडू से साफ करें। बिना गद्दी पर बैठे 'आप' इस गंदगी को साफ नहीं कर सकती, जिस तरह राजनीति में उतरे बिना 'आप' देश की दिशा और नीति में नए आयाम स्थापित नहीं कर सकती थी। अभी भी वक्त है 'आप' सत्ता को संभाले, वरना राजनीति को ही छोड़ दे। क्यों जनता की उम्मीदों को जगाकर 'आप' उनपर कुठाराघात कर रह रहो कहीं ऐसा न हो अगले चुनाव में आपकी पार्टी पर जनता का झाड़ू चल जाए। अरविंद जी आपको एक बात और स्पष्ट समझ लेनी चाहिए कि 'आप' का यह रवैया कहीं आपको 'रणछोड़ दास' की पदवी न प्रदान करवा दें।

जिम्मेदारी लेने से बचना

देश की राजनीति में फैली गंदगी को दूर करने इसमें उतरा 'झाडू' कहीं ठिठक गया है। दिल्ली में दूसरी बड़ी पार्टी होने के बावजूद वह सरकार बनाने की जिम्मेदारी से बचती हुई नजर आ रही है। उसे शायद यह डर कहीं न कहीं सता रहा है कि उसके पास अनुभव की कमी है और वह यदि सरकार चलाती है उसकी कमजोरियां जग जाहिर हो जाएंगी।

किए वायदे पूरे न होने का डर

'आप' को शायद यह भी डर सताने लगा है कि शायद वह दिल्ली की जनता से किए अपने वायदे पूरे न कर पाए। दिल्ली में बिजली की दरों को 50 फीसद तक कम करना और दिल्ली की जनता को रोजाना 700 लीटर मुफ्त पानी देना कहीं उसके गले की फांस न बन जाए।

लोकसभा चुनाव को लेकर रणनीति

दिल्ली में चमत्कारिक सफलता प्राप्त करने के बाद 'आप' कहीं न कहीं लोकसभा चुनाव में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करवाने की अभिलाषा पाल बैठी है। शायद इसलिए वह दिल्ली की गद्दी पर न बैठने के लगातार नए-नए बहाने ढूंढ़ रही ताकि सरकार चलाने की नाकामी उसके विजय रथ को लोकसभा चुनाव में न रोक दे।

[राजेश]

Thursday, December 12, 2013

केजरीवाल ने नहीं मोदी ने रोका 'आप' का रास्ता

दिल्ली में भाजपा के विजय रथ को 'आप' ने नहीं बल्कि छुपी रुस्तम निकली अरविंद केजरीवाल की पार्टी को बहुमत से 8 सीट पहले ही मोदी ने रोक लिया। ज्यादातर सभी राजनीतिक विश्लेषक दिल्ली में भाजपा के प्रदर्शन को लेकर मोदी को केजरीवाल के आगे कमतर मान रहे हैं, परंतु अगर सिक्के के दूसरे पहलू को देखा जाए तो जिस तरह चमत्कारिक रूप से 'आप' ने 15 साल से दिल्ली की सत्ता में काबिज कांग्रेस को पटकर मात्र 8 सीटों पर समेट दिया, उसको देखते हुए तो लगता है राजनीति के अखाड़े में पहली बार कूदी अरविंद की पार्टी ही सत्ता में आने वाली थी, जिसको मोदी की लहर ने रोक लिया। दिल्ली विधानसभा चुनाव में 'आप' के उतरने के बाद भाजपा को मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार विजय गोयल पर मंथन करना पड़ा और डॉ. हर्षवर्धन की साफ छवि को देखते हुए उन्हें चुनाव की कमान सौंपी गई। परंतु इस सबमें समय इतना जाया हो चुका था कि भाजपा चुनाव प्रचार में औरों से पिछड़ती हुई नजर आई। कुछ सर्वे भी भाजपा को दिल्ली में पिछड़ते हुए दिखा रहे थे। इससे पहले मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार को लेकर भीतरीघात से निपटने के साथ-साथ चुनाव प्रचार में बढ़त हासिल करने की जद्दोजहद के बीच भाजपा के लिए नरेंद्र मोदी रामबाण बनकर आए। उनकी रोहिणी रैली में उमड़ी भीड़ ने भाजपाइयों में और जान फूंक दी और पार्टी कार्यकर्ता एकजुट हो गए। साफ छवि के डा. हर्षवर्धन को सीएम पद का दावेदार घोषित करने और नमो के आभामंडल से भाजपा चुनाव परिदृश्य में छाने लगी और उसने पुराने सर्वों को पीछे छोड़ते हुए सहयोगी दल शिअद समेत 32 सीटों पर जीत हासिल की। यहां यह कहना अतिशोयक्ति नहीं होगा कि केजरीवाल और मोदी ने दिल्ली में एक-दूसरे के विजय रथ को थाम लिया।


आंकड़ों को उठाकर देखा जाए तो कांग्रेस पार्टी के खिलाफ बने माहौल का दोनों पार्टियों को लगभग बराबर-बराबर फायदा मिला। 'आप' ने जहां कांग्रेस से 19 सीटें वहीं भाजपा ने 18 सीटें छीनी। अपनी जीती 28 सीटों में से 'आप' भाजपा से मात्र 9 सीटें ही छिनने में कामयाब हो पाई। वहीं हारी हुई ज्यादातर सीटों पर भाजपा ही दूसरे नंबर पर रही। इसमें एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि आप ने 30 नवंबर को अपने द्वारा कराए गए खुद के सर्वे में पार्टी को 35.6 फीसद मतों के साथ 44 से 50 सीटें जीतने का दावा किया था। इस दावे को इस बात से भी बल मिलता है कि आप में शामिल योगेंद्र यादव चुनाव सर्वेक्षण के मामले में सबसे अव्वल माने जाते हैं। ऐसे में योगेंद्र यादव की देखरेख में उच्चस्तरीय मानकों व मापदंडों के साथ हुआ सर्वे कैसे फेल गया और पार्टी सरकार बनाना तो दूर दूसरे नंबर पर आ गई, इसका चिंतन करना भी जरूरी है। इसके पीछे आखिरी दिनों में मोदी फैक्टर माना जा सकता है। पिछले दो चुनावों में पार्टी नेतृत्व से उन्मुख भाजपा कार्यकर्ताओं का इस बार मतदान वाले दिन जबरदस्त उत्साह के साथ मेहनत करना देखते ही बनता था। भाजपा कार्यकर्ताओं के उत्साह के पीछे कहीं न कहीं मोदी फैक्टर भी काम कर रहा था।


यहां यह भी गौर करने वाली बात है कि आप ने अपने ही सर्वे में नरेंद्र मोदी को लोगों की पहली पसंद बताया था, जिसमें आप को मत देने वालों में भी केजरीवाल के मुकाबले मोदी पहली पसंद हैं। इस सर्वे में आप के बाद भाजपा के खाते में 26.6 फीसद व कांग्रेस को 25.8 फीसद मत मिलने की बात कही गई थी। आप के 30 नवंबर के आखिरी सर्वे पार्टी को 44 सीट मिलने का दावा किया था। वहीं, कांग्रेस व भाजपा 11 व 14 सीटों पर सिमटने का दावा किया गया था। वहीं आप के पक्ष में दो फीसद मत बढऩे पर पार्टी को 50 सीटें और कांग्रेस व भाजपा को क्रमश: 8 व 11 सीटें मिलने का दावा किया गया। इसके उलट दो फीसदी कम वोट मिलने पर आप की सीटों की संख्या 38 बताई गई थी। वहीं, कांग्रेस व भाजपा को 14 व 17 सीटें मिलने का दावा किया गया था। जबकि चुनाव परिणाम कुछ और ही बयां कर रहे हैं।


उधर, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी मोदी फैक्टर ने कहीं न कहीं अपना कमाल दिखाया। मोदी के चुनाव परिदृश्य में आने के बाद यहां के चुनावी समीकरण भी तेजी से बदलने लगे। राजस्थान में जहां तमाम सर्वे भाजपा को ज्यादा से ज्यादा 147 सीटें नहीं दे रहे थे वहां उसने सत्ताधारी कांग्रेस को 21 सीटों पर समेट हुए प्रचंड बहुमत के साथ 162 सीटें जीती। जिसकी उम्मीद शायद भाजपा को भी नहीं रही होगी।


मोदी फैक्टर की वजह से ही भाजपा छतीसगढ़ में आसानी से जीत पाई, क्योंकि नक्सली हमले में कांग्रेस के बढ़े नेताओं के असमय काल के गाल में समा जाने की वजह से एक समय ऐसा माना जा रहा था कि इस बार कांग्रेस को सहानुभूति का लाभ मिलेगा। परंतु मोदी की सभाओं में उमड़ते जनसैलाब ने भाजपा कार्यकर्ताओं में नवीन ऊर्जा का संचार किया।


मध्यप्रदेश में भी भाजपा को अंदरखाते सत्ता विरोधी लहर का डर था, जिसके चलते मुख्यमंत्री शिवराज चौहान की लोकप्रियता के बावजूद पार्टी को पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार कुछ सीटें कम आने की आशंका थी। यहां भी मोदी की रैलियां या उनका प्रभाव कहिए भाजपा पिछली बार के मुकाबले 20 सीटें ज्यादा जीतने में कामयाब रही। भाजपा यहां कुल 165 सीटें मिली। यह मोदी फैक्टर ही कहा जाएगा कि मध्यप्रदेश और राजस्थान में प्रचंड बहुमत मिला।


[राजेश]